शाहीन बाग़ की रोज़ा पार्क्स के नाम

1 दिसंबर 1953 को रोज़ा ने बस की सीट से उठने से इंकार कर दिया. कंडक्टर चाहता था कि अश्वेत रोज़ा गोरों के लिए सीट छोड़ दे. उस समय अमरीका के अलाबामा में ऐसा ही सिस्टम था. चलने के रास्ते से लेकर पानी का नल और बस की सीट गोरे और अश्वेत लोगों में बंटी थी. रोज़ा ने उठने से इंकार किया तो कंडक्टर ने पुलिस बुला ली. रोज़ा को जेल हुई. इस गिरफ़्तारी के ख़िलाफ़ जो नागरिक आंदोलन भड़का वो एक साल चला था. अमरीका की सर्वोच्च अदालत को बसों में अलग अलग बैठने की व्यवस्था समाप्त करनी पड़ी.


रोज़ा बराबरी के अधिकार के लिए लड़ने वाली कार्यकर्ता थीं. उस 1 दिसंबर को बस की सीट से उठने से इंकार न किया होता तो रोज़ा को उनका अपना नाम और वजूद वापस न मिलता. रोज़ा का विद्रोह अकेले का था बाद में सबका बन गया. मार्टिन लूथर किंग ने उस आंदोलन का नेतृत्व किया था. यक़ीन जानिये उस आंदोलन में कितनी पवित्रता होगी. समझ कितनी साफ़ होगी और मक़सद कितना मज़बूत होगा. तभी तो एक साल चला था.



रोज़ा से स्कूल की टीचर ने पूछा था. तुम क्यों सवाल पूछने के लिए परेशान हो तो रोज़ा ने कहा था इसलिए परेशान हूं कि मुझे बराबरी चाहिए. ख़्याल सबके मन में होते हैं मगर फ़ैसले का दिन कोई एक होता है. उस दिन आपको स्टैंड लेना होता है और अपने और अपने जैसे लाखों के लिए रोज़ा बन जाना होता है.



मुझे डेटा शोक हो गया है. फ़ोन के हैंग करने के कारण एक साल की तस्वीरें उड़ गईं. उनमें से मॉन्टगूमरी के म्यूज़ियम की ढेरों तस्वीरें थीं जिसे मैंने लिखने के लिए ली थी. वक़्त की आंधी ऐसी चलती रही कि लिखने का ख़्याल छूटता गया.



चंद तस्वीरें वापस मांग सका हूं. उसी म्यूज़ियम की हैं. हम उस म्यूज़ियम को देखने के लिए पूरे दिन चलते रहे. लौटते वक्त रात हो गई थी लेकिन अमरीका की सड़कों पर रात को चलने का मौक़ा मिला. बड़े-बड़े ट्रक अश्वेत और श्वेत महिलाएं चला रही थीं. हर बस में एक रोज़ा दिखती थी.


हिन्दू और मुसलमान के बीच बंटवारे की राजनीति को किसी रोज़ा का इंतज़ार है. एक दिन वह अपनी सीट से उठने से मना कर दें और इस ज़हर को भाप में बदल दे. यह काम रोज़ा जैसी औरतों से ही होगा.